स्वामी अय्यप्पन के बारे में

स्वामी अय्यप्पन का जन्म और इतिहास

तिरुमला नामकर द्वारा पद्च्युत होने पर मदुरा, तिरुनेलवेली तथा रामनाथपुरम के परिवार वल्लियूर, तेंकाशी, चेंगोट्टा, अच्चनकोविल, शिवगिरी जैसे जगहों पर नितर-नितर गये । उन्होंने तिरुवितांकूर के कुछ जगहों में अपना आधिपत्य स्थापित किया । करीब आठ सौ साल पहले तिरुवितांकूर के महाराजा पंतलम देश पर शासन करने का अधिकार उनको सौंप दिया । स्वामी अय्यप्पन के सौतेले पिता राजा राजशेखर इसी सांप्राज्य के थे ।

न्यायशील राजा राजशेखर के शासन काल में उनकी प्रजा सुखी रही । उनका समय साम्राज्य के लिए स्वर्णिम समय था । परंतु राजा का बड़ा दु-ख था कि उनके सिंहासन के उत्तराधिकारी के रूप में उनकी कोई संतान नहीं थी । राजा और रानी भगवान शिव की आराधना करते थे - एक संतान के लिए ।

उसी समय महिषासुर नामक असुर की तपस्या पर प्रसन्न होकर ब्राहृा ने वर दिया कि कोई भी उसे मार नहीं सकता । अतः महिषासुर ने लोगों को हटाया और मारना रहा । उसकी डर से लोग दूर दूर तक भाग लाने लगे । तब देवों को लगा कोई दैविक शक्ति ही उसके अतिक्रमों का अंत कर सकता है । उनकी प्रार्थना से दुर्गा ने एक घमासान लडाई में महिषासुर का वध किया । महिषासुर की बहिन महिषी ने भी ब्राहृा से वर लिया कि विष्णु एवं शिवा के पुत्र के अतिरिक्त कोई भी उसे मार नहीं सकता । तब से महिषी देवलोक के देवों की बेइज़त्ती करने लगी । देवगण विष्णु भगवान के पास प्रार्थना करने लगे कि महिषी के अतिक्रमों का अंत करे । तब विष्णु ने महिषी रूप धारण किया और असुरों के पास से अमृत हडपने में देवों की सहायता की । और यह तय किया गया कि मोहिनी और शिव का संतान जो जन्म लेगा उसे पंतलम के संतानहीन राजा को सौंपे ।

राजा राजशेखर शिकार खेलने लगाया गया तो एक नदी के किनारे एक बच्चे के रोने की आवाज़ सुनी । आवाज़ की दिशा में आनेवाला राजा का मिलन एक सुंदर नवजात बच्चे से हुआ । उसने बच्चे को राजमहल ले जाने को सोचा । उस समय एक साधु आकर राजा से कहा कि बच्चे को राजमहल ले जाओ । उसने यह भी कहा कि यह बच्चा राज्य के दुःख दुर्द मिटा देगा और 12 साल की आयु में उसीक शक्ति का असली पता राजा को हो जाएगा । चूँकि बच्चे के गले में एक सोने की माला थी, साधु ने उसे मणिकंठन नाम देने को कहा।

राजा ने बच्चे को राजमहल ले गया और राणी से सारी बातें बता दी । दोनों खुश हुए । दोनों को लगा कि शिव जी का अनुग्रह उनको प्राप्त हुआ है । वहाँ के मिलान दुखी हुए क्योंकि राजा के बाद सिंहासन पर उनकी दृष्टि पडी थी ।

बचपन से हो मणिकण्ठन बडा मेधावी था । वह युद्ध विद्या एवं शास्त्रों में गुरु को चकित करता था । इस समय पंतलम में शांति का बोलबाला रहा । गुरु को मालूम हुआ कि मणिकंठन साधारण बालक नहीं है, इसके पास दिव्य शक्तियाँ हैं । पढ़ाई खतम हुई तो गुरुदक्षिणा देकर गुरु का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए गुरु के पास पहूँचा । तब गुरु ने उसे लेताया कि वह दिव्य शक्तिवाला बालक है, उसका लक्ष्य लोगों की सेवा करना है । गुरु का बेटा अंधा और गूंगा था । गुरु ने दक्षिणा के रूप में उसे एक करने का आग्रह प्रकट किया । मणिकण्ठन के स्परश से बच्चा सब देख सका और बोल सका। किसी से इसके बारे में न बताने की बात करके मणिकंठन राजमहल लौटने लगा । इसके बीच राजा का एक पुत्र पैदा हुआ - राजराजन । राजा को लगा कि उनका सभी माशा मणिकंठन के सामीप्य से हुआ है और मणिकंठन को अगला राजा बनाना है । दिवान को छोडकर सबको यह प्रस्ताव अच्छा लगा । उसने मणिकंठन को मारने की कई कोशिशों की - खाने में विष मिलाया, घायल किया । शिव ने मणिकंठन की रक्षा की ।
दिवान की सभी कोशिशें हार गयी तो वह राणी के पास पहुँची । उसने बताया अपने बच्चे के स्थान पर पराये बच्चे की राजा नहीं बनाना है । अर्थशास्त्र के अनुसार उनसे राणी को चेताया कि कोई रोग का बहाना करना है । वैद्य से कहलाएगा कि रोग से मुक्ति के लिए बाघिन की दूध चाहिए तब मणिकंठन को जंगल भेजेगा । तो जंगल में कोई जानवर उसे माटेगा अगर बिना बाघिन का दूद लौटेगा तो राजा के मन उसके प्रति जो प्यार है वह कम हो जाएगा । राणी ने उस चाल की सहमती की । उसने पेट दर्द का बहाना किया । राजा ने सारे वैद्यों को बुलाया और जाँच पडताल की । दिवान की चाल से वैद्य ने कहा कि बाघिन के दूध से यह ठीक हो जाएगा । राजा ने घोषणा की कि राणी का रोग ठीक करनेवाले व्यक्ति को आधा राज्य दिया जाएगा ।

राजा ने सैनिकों को दूध लाने को जंगल भेजा, पर वे खाली हात लौट आये । मणिकंठन ने खुद जाने की बात की तो राजा ने मना किया । पर मणिकंठन ने खुद जाने का हठ किया । तब राजा ने सैनिकों को साथ भेजने की बात की । मणिकंठन ने यह बताकर रोक दिया कि अकेले जाने से ही बाघिन का दूध ला लकता । अंत में अनमने भाव से उसे सहमती दी । साथ ही शिवभगवान की आराधना में तीन आँखवाला नारियल भी साथ दे दिया ।

मणिकंठन जंगल गए तो शिव भगवान के भूतगण उसके पीछे थे । रास्ते में मणिकंठन को महिषी का सामना करना पड़ा । मणिकंठन ने महिषी को देवलोक से पृथ्वी पर फेंका । वह अष़ुता नदी के पास जा गिरी। दोनों में घमासान लड़ाई हुई और अंत में मणिकंठन महिषी की छाती में खडे दोकर और तांडव नृत्य करने लगा । देवगम तक डर गए । महिषी को समझ में आ गया कि यह शिव और विष्णु का बेटा है । वह वहीं ढेर हो गई ।

शिव और विष्णु दोनों यह लड़ाई कालकेट्टी नामक जगह में खडे होकर देख रहे थे। (कहा जाता है कि कावलन की बेटी लीला जो शापग्रस्त होकर महिषी बनी थी, जो धर्मशास्था के पादस्पर्श से मोक्ष का अधिकारिणी बन गई । वह सबरीमला में मालिकप्पुरत्तम्मा नाम से मंदिर में विराजमान है ।)

महिषी का वध करके मणिकंठन जंगल में बाघिन की दूध केलिए घुसे । शिव प्रकट हुए और चेताया कि एक इकावट जीत चुका है, पर आगे भी रुकावट है । तब मणिकंठन को दुखी माता-पिता की याद आई । इंद्र ने उसे सहायता करने का वादा दिया था । मणिकंठन देवेंद्र के ऊपर चढ़कर, जिससे बाघिन का रूप धारण क्रिया था, राजमहल की ओर यात्रा शुरू करने लगा । उनके पीछे देवी गण बाघिन और देवगण बाघ बनकर चलने लगे ।

बालक मणिकंठन को बाघों के साथ देखकर पंतलम के लोग डर के मारे अभय ढूंढने लगे । उसी क्षण साधु ने प्रत्यक्ष होकर बालक भी अद्भुत क्षमता के बारे में राजा राजशेखर तथा प्रजाओं को बताया । बाघों के साथ मणिकंठन ने राजमहल में प्रवेश किया राजा चुप रहे । बाघ से उतरकर मणिकंठन राजा के पास पहुँचा और बाघिन का दूध लाने की बात की । राजा अपनी गलती से गलकर मणिकंठन के पैर में गिरकर माफी माँगने लगा । मणिकंठन के जंगल जाते ही राणी की तबीयत ठीक हो चुकी थी । जिस दिन मणिकंठन जंगल से लौट आया, उसकी आयु 12 बरस की हो चुकी थी ।
राजशेखरने दीवान को दंड देना चाहा परंतु मणिकंठन ने कहा कि से सब ईशवर -विधान है । उसे दंड मत दीजिए । मणिकंठन ने राजा से बताया कि उसका जन्मलक्ष्य सफल हो गया है । अतः देवलोक वापस जाना है । जाने से पहले उसने राजा से कहा कि राजा की भक्ति भावना पर वह अत्यंत तृप्त है और जो भी माँगे वह दे देगा । राजसेखरन ने विनती की कि मणिकंठन के नाम पर एक मंदिर बनाने के लिए उचित लगह दिखा दें । मणिकंठन ने एक तीर चलाई । वह वहां गिरी जहाँ श्रीराम के समय शबरी नामक स्त्री रह रही थी । वहाँ अपने लिए मंदिर का निर्माण करने की बात करते हुए मणिकंठन लौट गए ।

अगस्त मुनि के कहने पर राजा राजशेखरने सबरीमाला में मंदिर की नींव डाली । मणिकंठन ने कहा कि जो 41 दिन का कठिन व्रत लेकर, परिवार और संबंधियों से दूर रहकर जो मेरे पास आएगा, वह मेरे अनुग्रह का पात्र होगा । इनको ब्राहृचारी जीवन बिताने मड़ेगा और जीवन को शुलिता में जीना होगा । उनको दूध लेने के लिए मणिकंठन जिस तरह गया था, उसीप्रकार तीन आँखवाले नारियल को पुष्पमालाओं से ढककर जाना रहे । उन्हें 18 सीढियाँ भी चढ़ती है ।
राजशेखरने इस बीच मंदिर का निर्माण निभा और 18 पवित्र सीढियां भी बनार्इं। राजा जब मूर्ति स्थापित करने निकले तो मणिकंठन ने याद दिलाया - पंपा नदी गंगा नदी के समान पवित्र है और शबरिमला  काशी के समान । धर्मशास्ता ने परशुराम को भेजा जिन्होंने सागर से सबरीमाला तक की पृथ्वी सागर से हटा दिया था । उन्होंने मकर संक्रांति के दिन अय्यप्पा की मूर्ति स्थापित की ।

हर साल लाखों लोग जाति-धर्म के भेदभाव के बिना, इरुमुडी लेकर पंपा नदी में स्नान करके धर्मशास्ता के दर्शन के लिए अठारह सीढियां चढ़कर शबरिमला  पहुँ जाते हैं।